शिक्षा की प्रक्रिया क्या होती है
सामान्यतः शिक्षा के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते समय इस तथ्य की ओर संकेत मिलता है कि शिक्षा का अर्थ बालक की जन्मजात शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना है, ज्ञान का आरोपण करना मात्र नहीं है।
शिक्षा के द्वारा मानव के अन्तर में निहित उन सभी शक्तियों व गुणों का दिग्दर्शन होता है जिनको शिक्षा की सहायता के बिना अन्दर से बाहर निकालना नितान्त असम्भव है।
शिक्षा के विश्लेषणात्मक अर्थ को स्पष्ट करते हुए पेस्टालाजी कहते हैं कि “शिक्षा मानव की जन्मजात शक्तियों का स्वभाविक, समन्वित एवं प्रगतिशील विकास है।"
परन्तु मनुष्य कुछ जन्मजात शक्तियों और क्षमताओं यथा सोचने, विचारने, निश्चय करने, अनुभव तथा आचरण करने की क्षमता से सम्पन्न होता है। आयु वृद्धि के साथ-साथ ही आन्तरिक शक्तियाँ विकसित होती रहती हैं।
अपने जीवनकाल में प्राप्त अनुभव बालक के भावी आचरण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। शिक्षा का कार्य यह है कि वह इस विकास को बाल प्रकृति और आवश्यकताओं के अनुसार सुगम और स्वाभाविक रीति से करने में सहायक सिद्ध हो, यह विकास कृत्रिम और आरोपित नहीं होना चाहिए। साथ ही साथ विकास सम होना चाहिए अर्थात् विभिन्न क्षमताएँ परस्पर संतुलित हों।
उदाहरणा के लिए बुद्धि का विकास अभीष्ट है किन्तु इसके लिए न तो संवेगों तथा भावनाओं को कुंठित किया जाना चाहिए न नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों की ही हानि होनी चाहिए। वृद्धि धनी किन्तु सर्वतोन्मुखी हो ।
विकास सम ही नहीं प्रगतिशील भी होना चाहिए अर्थात् शिक्षा का क्रम जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त चलते रहना चाहिए, शक्तियों और क्षमताओं का विकास कभी रुकना नहीं चाहिए।
यहाँ पर बताए गए अर्थ में गाँधी जी द्वारा प्रदत्त शिक्षा की परिभाषा भी अत्यन्त संगत होती है-.
“शिक्षा का अर्थ में बालक अथवा मनुष्य में आत्मा, शरीर और बुद्धि के सर्वांगीण विकास से समझता हूँ।"
अर्थात् गाँधी जी के अनुसार शिक्षा बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा की क्षमताओं का सर्वतोन्मुखी प्रकाशन है ताकि ये योग्यतायें, क्षमतायें, विचार, वचन और कर्म में अभिव्यक्त हो सकें।
ऐसा न हो कि उत्तम शरीर में अशुभ विचारों का वास हो किन्तु अभिव्यक्ति सन्तुलित और पूर्ण भी होनी चाहिए, डाकू अथवा युद्धरत राष्ट्र की सी अभिव्यक्ति अभीष्ट नहीं।
प्रगतिशील विकास के बिन्दु को भी ध्यान में रखते हुए गाँधी जी ने शिक्षा को गुण संयुक्त अभिव्यक्ति की प्रक्रिया माना है जो आजीवन चलती रहती है जिसमें नवीन से नवीनतर और नवीनतर से नवीनतम् अनुभव संयुक्त होते चले जाते हैं।
शिक्षा के विभिन्न ध्रुव अथवा शीर्ष (Different Poles or Heads of Education)
शिक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में विचार करते समय इस बिन्दु का स्पर्श भर किया गया था। शिक्षाशास्त्री एडम्स जी ने अपनी पुस्तक "Evalution of Education Theory" में शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया बताया है
शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है
- यह प्रक्रिया सचेतन ही नहीं है बल्कि उद्देश पूर्ण अथवा विचारपूर्ण भी है जिसमें शिक्षक का एक स्पष्ट प्रयोजन होता है और वह उसी के अनुसार बालक के व्यवहार में परिवर्तन करता है।"
- शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन न हो जाए।”
- वे साधन जिनके द्वारा बालक के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है दो हैं
- शिक्षक के व्यक्तित्व का बालक के व्यक्तित्व पर प्रभाव
- ज्ञान के विभिन्न अंगों का प्रयोग।"
उपर्युक्त विवेचन से शिक्षा रूपी प्रक्रिया के दो ध्रुव स्पष्ट हैं- पहला शिक्षक और दूसरा विद्यार्थी।
दोनों का अपना महत्व है, एक सिखाता है दूसरा सीखता है। प्रथम निर्देश देता है दूसरा उसे ग्रहण करता है। इस प्रकार शिक्षा परस्पर आदान-प्रदान की प्रक्रिया है। समय के साथ विकास की दृष्टि से शिक्षक अपने व्यक्तित्व तथा ज्ञान के लिए विभिन्न अंगों के प्रभाव से बाल व्यवहार में परिवर्तन एवं सुधार करता है।वस्तुतः शिक्षा प्रक्रिया के सुचारु संचालन हेतु शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों की सक्रियता आवश्यक है।
शिक्षा त्रिमुखी प्रक्रिया के रूप (Education as a Tripolar Process)
एडम्स की तरह ही जान डीवी ने शिक्षा को प्रक्रिया के रूप में ही स्वीकार किया है किन्तु जहाँ एडम्स शिक्षा प्रक्रिया से बालक और शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए मनोवैज्ञानिक पक्ष पर बल देते हैं
वही डीवी मनोवैज्ञानिक पक्ष को स्वीकार करते हुए सामाजिक पक्ष पर विशेष बल देते हैं। यद्यपि यह निर्विवाद है कि बालक को शिक्षित करने के लिए जन्मजात शक्तियों और क्षमताओं का ज्ञान आवश्यक है
लेकिन यह विकास उचित दिशा की ओर हो, तथा समाज के सहयोग की भी आवश्यकता है। हम सभी का यह नैतिक दायित्व है कि हम उस समाज के लिए बालक को तैयार करें जिसका उसे आगे जाकर सदस्य बनना है।
इस दृष्टि से यह समाज निश्चित करेगा कि समाज स्वीकृत आचरण और कार्यकुशलता विकसित करने की दृष्टि से परिवर्तित परिस्थितियों में कौन-कौन से विषयों को किन-किन शिक्षण पद्धतियों के माध्यम से पढ़ाया जाना अपेक्षित है।
इस दृष्टि से पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसके अभाव में शिक्षक क्या पढ़ायेगा? तथा बालक क्या पढ़ेगा? इन प्रश्नों का उत्तर असम्भव है, अर्थात् पारस्परिक पाठ्यक्रम वह धुरी है जो दोनों को संयुक्त करती है। इन तीनों अंगों की पारस्परिक क्रिया में ही शिक्षा निहित है।
उपर्युक्त दृष्टि से शिक्षा मानव के सामाजिक विकास की प्रक्रिया है। इस आशय से डीवी का कथन है कि “शिक्षा में सामाजिक और संस्थागत प्रेरणाएँ फलती-फूलती हैं, सामाजिक कल्याण की अभिरुचियाँ निर्देशित होती हैं तथा समाज की उन्नति और सुधार के सीधे और विश्वासपूर्ण साधन बताये जाते हैं।”
अतः डीवी के कथनानुसार शिक्षा की प्रमुख रूप से तीन धुरी होती हैं
- बालक-छात्र-शिक्षार्थी
- शिक्षक-निर्देशक-अध्यापक
- समाज-पाठ्यक्रम
यदि शिक्षक के अभाव में शिक्षा नहीं है तो छात्र के बिना भी शिक्षा नहीं है। इसी तरह सामाजिक तत्वों एवं वास्तविकताओं अर्थात् पाठ्यक्रम के बिना भी शिक्षा का कोई अस्तित्व नहीं है। यही कारण है कि डीवी महोदय ने शिक्षा को त्रिमुखी-त्रिध्रुवीय अथवा तीन धुरी वाली शिक्षा की प्रक्रिया स्वीकार की है।