संस्कृति क्या है : अर्थ, परिभाषा और विशेषताएँ

संस्कृति क्या है (Sanskriti Kya Hai)

संस्कृति मानव व्यवहार है। मानव व्यवहार एक जटिल प्रक्रिया है। इसके अनेक आयाम तथा घटक होते हैं, संस्कृति उनमें से एक है। संस्कृति की कुछ अपनी विशेषतायें होती है। जिसके परिणामस्वरूप यह समाज की अन्य इकाइयों से विशिष्ट पहचान रखती है।

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संस्कृति का अर्थ (Sanskriti Ka Arth)

संस्कृति के अंग्रेजी पर्याय कल्चर (Culture) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के कलदुरा (Cultura) शब्द से मानी जाती है।

शाब्दिक अर्थ में 'संस्कृति' शब्द संस्कार (Sanskar) का रूपान्तर माना जाता है। लगभग प्रत्येक हिन्दू को अपने जीवन को परिमार्जित करने हेतु अनेक प्रकार के संस्कार अनिवार्यतः या ऐच्छिक रूप से करने पड़ते हैं, परिणामस्वरूप वह संस्कृत (Cultured) कहलाता है।

स्पष्ट है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक हिन्दू की शुद्धि (Purification) हेतु आवश्यक कृत्यों या संस्कारों की योजना को 'संस्कृति' कहा जा सकता है। संस्कृति मानव जीवन को उच्चता तक पहुँचाने का साधन है।

मानवशास्त्री (Anthropologist) संस्कृति शब्द से प्रायः मानव द्वारा सीखे हुए व्यवहार (Learned Behaviour) की समग्रता से तात्पर्य रखते हैं जिसमें बालक का व्यक्तित्व (Personality) पलता और पनपता है।

प्रसिद्ध मानवशास्त्री ई.बी. टायलर ने संस्कृति को परिभाषित करते हुये लिखा है, " संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिससे ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा और ऐसी ही अन्य क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है, जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के कारण प्राप्त करता है।

वैसे तो संस्कृति की अवधारणा मूलरूप से मानवशास्त्र कम से कम उस हद तक समझने का प्रयास तो करते ही हैं। जहाँ तक यह मानवीय व्यवहार व सामाजिक सम्बन्धों को समझने में सहायक होता है।

स्पष्ट है कि समाजशास्त्र संस्कृति को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखता व समझता है। यह संस्कृति व व्यक्तित्व के अन्तःसम्बन्ध पर अत्यधिक जोर देता है।

संस्कृति की परिभाषा (Definition of Culture)

1. मैकाइवर लिखते हैं, "संस्कृति हमारे नैतिक व्यवहार में कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द पाये जाने वाले रहन-सहन और विचार के तरीकों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।"

2. हाबल के शब्दों में, "संस्कृति सम्बन्धित सीखे हुए ऐसे व्यवहार प्रतिमानों का सम्पूर्ण योग है जो किसी भी समाज के सदस्यों की विशेषताओं की ओर इंगित करता है और इसलिए प्राणिशास्त्रीय विरासत का परिणाम नहीं होता है।"

3. मैलिनास्की- "संस्कृति में वे पदार्थ, औजार और शारीरिक एवं मानसिक आदतें सम्मिलित रहती हैं, जो मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कार्य करती हैं।"

4. राल्फ लिंटन के अनुसार, "संस्कृति सीखे व्यवहारों और व्यवहार परिणामों की वह व्यवस्था है। जिसके निर्माणकारी तत्व किसी विशिष्ट समाज के सदस्यों द्वारा प्रयुक्त तथा संचालित होते हैं।"

5. जे.एफ. क्यूबर "संस्कृति सीखे हुए व्यवहार तथा व्यवहारों के ऐसे उत्पादकों (जिसमें मनोवृत्तियाँ, ज्ञान तथा पार्थिव वस्तुयें सम्मिलित हैं) का सतत् परिवर्तनशील प्रतिमान है। जिनका समाज के सदस्यों द्वारा प्रयोग और हस्तान्तरण होता है।"

6. राबर्ट बीरस्टीड के शब्दों में- "संस्कृति उन वस्तुओं का जटिल संग्रह है जो हम समाज के सदस्यों के रूप में सोचते, करते और रखते हैं।"

संस्कृति के तत्व (The Elements of Culture)

सामान्यतया समाजशास्त्र में संस्कृति को निम्न दो भागों में विभाजित किया जाता हैं।

  1. भौतिक संस्कृति (Material Culture)
  2. अभौतिक संस्कृति (Non-Material Culture)

भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत मानव निर्मित वस्तुओं का समावेश होता है जिसका मूर्त रूप होता है। यथा वायुयान, अभिलेख, इमारत, मन्दिर, मस्जिद, पेंसिल, लोहा, थाली आदि।

इसके विपरीत अभौतिक संस्कृति के अन्दर समाज में व्याप्त जनरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं, संस्थाओं, विश्वासों, आदर्शों, विधियों, धर्मों, कलाओं इत्यादि का समावेश होता है। समाज में इनका अस्तित्व मूर्त रूप में नहीं होता है।

राल्फ लिण्टन ने संस्कृति के तत्वों को निम्नलिखित तीन उपभागों में विभाजित करा है। जिससे समझने में आसानी हो।

1. सार्वभौमिक तत्व (Universal Elements)

सार्वभौमिक तत्वों से संस्कृति के उस गुणों का तात्पर्य है। जो सामान्य रूप से सभी समाजों में पाई जाती है और समान रूप से स्वीकार की जाती है यथा विवाह की पद्धति, परिवार की मान्यता, शासन प्रबन्ध आदि।

2. वैकल्पिक तत्व (Alternatives)

जैसा कि नामकरण से सुस्पष्ट है। संस्कृति के वैकल्पिक तत्व वे हैं जिनको व्यक्ति अपने चुनाव करने में अपनी पसन्दगी या नापसन्दगी का प्रयोग करता है। उदाहरण के लिये आधुनिक भारतीय समाज में अदालत के माध्यम से विवाह करना या स्वेच्छा से मन्दिर में विवाह करना ।

3. विशिष्ट तत्व ( Specialities)

इनसे लिण्टन का आशय उन कार्यों तथा व्यवसायों से है। जो अपने आप विशिष्ट होते हैं यथा वकील, प्रोफेसर (अधिष्ठाता), इन्जीनियर (अभियन्ता) आदि को स्वयं की व्यावसायिक भाषा का विशिष्ट ज्ञान होता है। ये विशेषतायें संस्कृति विशेष के सभी सदस्यों में नहीं पाई जाती है।

संस्कृति की विशेषताएँ (Sanskriti Ki Visheshataye)

1. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है (Culture is learned behaviour)

संस्कृति की प्रथम व आधारभूत विशेषता यह है कि संस्कृति जन्म जात न होकर सीखा हुआ व्यवहार है। स्पष्ट है कि बालक जन्म से संस्कृति लेकर या सीखकर नहीं पैदा होता है बल्कि समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा बालक संस्कृति को सीखता है।

2. संस्कृति का हस्तान्तरण पीढ़ी दर पीढ़ी होता है (Culture is transmitted from generation to generation)

संस्कृति संचारशील होती है अर्थात् संस्कृति के विभिन्न तत्व एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते रहते हैं। संस्कृति के माध्यम से वर्तमान पीढ़ी पिछली पीढ़ी का ही विकसित रूप होता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न समाजों के आपस में सम्पर्क में आने से वे एक दूसरे समाज में संचारित हो जाते हैं।

3. संस्कृति सामाजिक होती है (Culture is Social)

संस्कृति का सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर सम्पूर्ण समाज से होता है। अर्थात् संस्कृति वैयक्तिक न होकर सामाजिक होती है। कोई गुण यदि व्यक्ति विशेष तक सीमित रहता है तो वह संस्कृत नहीं बन सकता है।

4. संस्कृति का स्वरूप परिवर्तनशील होता है (Culture is variable)

सांस्कृतिक गुण समयानुसार परिवर्तित होते रहते हैं। उदाहरणार्थ एक समय भारतीय सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में पर्दा प्रथा का महत्व था। परन्तु आज के आधुनिक वातावरण में पर्दा प्रथा को कोई खास महत्व नहीं दिया जा रहा है।

इसी प्रकार जब एक दूसरे समाज के द्वारा कोई सांस्कृतिक गुण प्राप्त करता है, तो वह अपनी परिस्थितियों के अनुकूल उसके स्वरूप में थोड़ा बहुत परिवर्तन कर लेता है।

5. संस्कृति सार्वभौमिक व विशष्ट हो सकती है (Culture may be universal and specific)

संस्कृति के कुछ तत्व सभी समाजों में पाये जाते हैं और कतिपय तत्व केवल समाज विशेष तक ही सीमित होते हैं। वास्तविकता तो यह है कि संस्कृति एक सार्वभौमिक अवधारणा है।हां, यह बात दूसरी है कि विभिन्न समाजों की संस्कृति का स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकता है परन्तु संस्कृति प्रत्येक समाज में निर्विवाद रूप से पायी जाती है।

6. संस्कृति उपयोगी होती है (Culture has utility)

संस्कृति प्रायः समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। संस्कृति वास्तव में सामाजिक जीवन के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करती है।

मनुष्य किस परिस्थिति में क्या करे, किन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कब और किस तरह के साधन का प्रयोग करे आदि सब संस्कृति ही निर्धारित करती है। कतिपय अपवादों को छोड़कर संस्कृति समाज के लिए उपयोगी होती है।

7. संस्कृति समाज के लिए उपयोगी होती है (Culture is ideal for the society)

संस्कृति, विशेषकर परम्परागत समाजों में, साधन न होकर साध्य होती है। इसके अन्तर्गत उसके आदर्श प्रतिमान अथवा आदर्श नियम सम्मिलित होते हैं, जिनके अनुसार व्यवहार करना समाज का प्रत्येक सदस्य अपना धर्म मानता है। इन नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति निन्दा का पात्र होता है।

संस्कृति की अवधारणा (Sanskriti Ki Avadharana)

संस्कृति एक जटिल व संचयी अवधारणा है (Culture is a complex and cumulative chenomenon)

संस्कृति एक सम्पूर्ण व जटिल व्यवस्था होती है। जिससे समयानुसार नवीन तत्वों का समावेश होता रहता है तथा वर्तमान भारतीय संस्कृति में आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, अंग्रेजी सांस्कृतिक तत्वों का सम्मिश्रण है।

इसके अतिरिक्त संस्कृति की प्रकृति संचयी होती रहती है। संस्कृति में समय के साथ-साथ नवीन तत्वों की वृद्धि होती रहती है साथ ही साथ पुराने तत्व भी सुरक्षित रखे जाते हैं। परिणामस्वरूप संस्कृति के आकार में क्रमशः वृद्धि होती चली जाती है। निःसंदेह कतिपय सांस्कृतिक तत्वों का विनाश होता है परन्तु नवीन तत्वों की तुलना में वे प्रायः नगण्य होते हैं।

सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा (Concept of Cultural Lag)

प्रायः यह देखा जाता है कि संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक पक्षों में समान गति से परिवर्तन न होकर, भौतिक पक्ष में तीव्र गति से परिवर्तन होता है। ऐसी परिस्थिति में यह स्वाभाविक है कि संस्कृति का अभौतिक पक्ष, भौतिक पक्ष से परिवर्तन में काफी पीछे रह जाता है और दोनों पक्षों में पर्याप्त अन्तर स्थापित हो जाता है। भौतिक पक्ष का आगे निकल जाना और अभौतिक का पीछे छूट जाना ही सांस्कृतिक विलम्बना कहलाती है।

इस अवधारणा का प्रयोग, सर्वप्रथम आगबर्न ने अपनी कृति 'सोशल चेन्ज' में किया।

ए हैण्ड बुक ऑफ सोशियोलाजी (A Hand Book of Sociology) में आगबर्न और निमकाफ ने उसको परिभाषित करते हुए लिखा है कि “सांस्कृतिक पिछड़ से हमारा तात्पर्य उस तनाव से है। जो संस्कृति के दो अन्तः सम्बन्धित भागों में पाया जाता है, जो असमान गति से परिवर्तित हो रहे हैं और उस भाग के जो धीमी गति से परिवर्तित हो रहा है पीछे छूट जाने से है।"

"The strain that exists between the two corelated parts of culture that change at unequal rates of speed may be interpreted as a lag in the part that is changing at the slowest rate of one lags behind the other"

Ogburn & Nimkoff के शब्दों में, “आधुनिक संस्कृत में विभिन्न भाग समान गति से नहीं बदल रहे हैं, कुछ भाग दूसरों की अपेक्षा अधिक तेजी से बदल रहे हैं और क्योंकि (संस्कृति के) भागों में अन्तः सम्बन्ध और अन्तः निर्भरता होती है। अस्तु संस्कृति के एक भाग में परिवर्तन होने के कारण संस्कृति के दूसरे सम्बन्धित भागों में परिवर्तन के द्वारा सामंजस्य करने की आवश्यकता होती है।

उदाहरणार्थ उद्योग और शिक्षा अन्तः सम्बन्धित हैं। इसलिए उद्योग में परिवर्तन होने से शैक्षिक पद्धति में परिवर्तन करके सामंजस्य करना आवश्यक हो जाता है। जहाँ हमारी संस्कृति पदार्थ के अनुसार भिन्न परन्तु अनेक वर्षों तक यह रह सकती है और उतने समय वहाँ असामंजस्य बना रहेगा।

मैकाइवर और पेज (Macilver and Page) ने आगबर्न की उपरोक्त व्याख्या व अवधारणा का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया है। मैकाइवर और पेज का कहना है कि संस्कृति का कौन भाग किसके पीछे छूट जाता है। पूर्णतया स्पष्ट नहीं है।

इसके अतिरिक्त यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है, कि भौतिक संस्कृति ही सदैव अभौतिक से आगे रहती है। इस अन्तर को मापा जाना भी असंभव सा है।

सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा के द्वारा समाज में होने वाले सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन को नहीं समझा जा सकता है जैसे कि आगबर्न के दृष्टिकोण से प्रतीत होता है। आपने विभिन्न क्षेत्रों में पायी जाने वाली विलम्बना को भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा स्पष्ट करने की चेष्टा की है।

1. प्रौद्योगिकीय विलम्बना (Technological lag)

यह विलम्बना उस समय घटित होती है। जब किसी प्रौद्योगिकीय प्रक्रिया व्यवस्था के विभिन्न अंगों में सामंजस्य असफल हो जाता है यथा यदि किसी कारखाने में दो चरणों में कार्य हो रहा है। परन्तु अन्य चरणों में कार्य उन दो चरणों के अनुरूप नहीं हो रहा है तो उत्पादन प्रभावित होगा।

2. प्रौद्योगिकीय तनाव (Technological Restraint)

यह स्थिति उस समय दिखाई पड़ती है। जब कतिपय निहित स्वार्थों के कारण नवीन व उपयोगी उत्पादन के साधनों या विधियों को प्रचलित होने से रोका जाता है। उदाहरणार्थ श्रमिक वर्ग द्वारा कम्प्यूटीकरण (Computerization) का विरोध। क्योंकि कम्प्यूटरीकृत हो जाने पर अनावश्यक मजदूर बाहर निकाल दिये जायेंगे, परिणामस्वरूप प्रौद्योगिकीय तनाव की उत्पत्ति होती है।

3. सांस्कृतिक प्रतिरोध (Cultural Restraint)

प्राय: यह देखा जाता है कि प्रत्येक समाज के सदस्यों को अपनी संस्कृति से विशेष लगाव होता है, जो स्वाभाविक भी है। यदि किसी अन्य संस्कृति के या नवीन संस्कृतिक गुणों का प्रवेश उस संस्कृति में होता है या किया जाता है, तो प्राचीन संस्कृति द्वारा नवीन संस्कृति का विरोध किया जाता है।

नवीन तकनीकी के उत्पत्ति से लोगों के मन में आशंका पैदा हो जाती है कि आगे चलकर यही नवीन उत्पादन प्रथा की विदेशी मूल्यों, लक्ष्यों एवं जीवन उद्देश्यों का निर्धारण कर सकती है।

4. सांस्कृतिक विसंयुजता (Cultural Ambivalence)

सांस्कृतिक विसंयुजता की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है। जब कि व्यक्ति अपनी प्राचीन या वर्तमान संस्कृति का त्याग नहीं करते हैं। परन्तु साथ ही साथ नवीन संस्कृति से उपयोगी तत्वों को ग्रहण कर लेते हैं।

यह दो संस्कृतियों के बीच की दशा सी हो जाती है। इस दोहरी सांस्कृतिक प्रतिमान की प्रकृति को ही सांस्कृतिक विसंयुजता कहा जा सकता है।

उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद भी आगबर्न की सांस्कृतिक विलम्बना की अवधारणा अत्यन्त महत्वपूर्ण व उपयोगी है। आधुनिक भारतीय समाज को समझने व समझाने में इस अवधारणा ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वास्तव में यह समाजशास्त्र का एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष है।

संस्कृति का मानव जीवन पर प्रभाव

मानव जीवन में संस्कृति का प्रभाव हम निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं।

1. उत्तरदायित्व की भावना का विकास

संस्कृति मानव में उत्तरदायित्व की भावना का निर्धारण कर उसके व्यक्तित्व को एक विशेष रूप प्रदान करती है। भारतीय संस्कृति के प्रभाव से ही यहाँ संयुक्त परिवारों के अन्दर बच्चों को शुरू से ही कठोर अनुशासन में रखा जाता है तथा सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने हेतु उसे तरह-तरह से प्रशिक्षित किया जाता है।

इसके परिणामस्वरूप भारत में माता-पिता, भाई बहन, परिवार के सदस्यों, मित्रों एवं अन्य व्यक्तियों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना जितनी अधिक पायी जाती है। वह यूरोप के लोगों में नहीं दिखाई पड़ती है।

2. व्यवहार प्रतिमानों का निर्धारण करना

संस्कृति मानव जीवन में व्यवहार प्रतिमानों का निर्धारण करती है। जैसे- हिन्दू संस्कृति प्रत्येक स्त्री को अपने से बड़े पुरुष के सामने सिर ढक कर रखना सिखाती है, जबकि इस जनजाति में लड़कियों से यह आशा की जाती है कि वे सम्मानित पुरुष से बात करते समय एक आँख बंद किये रहें। दोनों आँखें खोलकर बात करना अशिष्टता समझी जाती है।

अधिकांश समाजों में स्त्रियों के लिए यह आवश्यक समझा जाता है कि वे सम्मानित पुरुषों के सामने न जाये, लेकिन मोकाधिर जनजाति में दामाद के लिए यह नियम है कि वह अपनी सास से वर्दा करे। इसी प्रकार स्त्री एवं पुरुषों के पारस्परिक सम्बन्धों, सम्पत्ति अधिकारी, नातेदारी के प्रति हास-परिहास आदि से सम्बन्वित सांस्कृतिक विशेषतायें विभिन्न समूहों को एक-दूसरे से भिन्न करती हैं।

3. मनोवृत्तियों के निर्माण को प्रभावित करना

व्यक्ति की मनोवृत्तियों से उसके व्यवहारों का निर्धारण होता है। संसार के सभी समूहों की मनोवृत्तियाँ उसके सांस्कृतिक विशेषताओं से ही निर्धारित होता है।

जैसे- परम्परागत हिन्दू संस्कृति जन्म से ही ब्राह्मण को हरिजनों तथा नीचा जातियों के व्यक्तियो से पृथक रहना सिखाती है। शांति व्यवस्था के नियम सभी जातियों को पृथक-पृथक रहना सिखाते हैं।

इसके फलस्वरूप प्रत्येक जाति के व्यक्ति में अन्य जातियों के प्रति एक विशेष मनोवृत्ति का विकास हो जाता है जो बाद में उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती है।

4. पालन-पोषण तथा प्रशिक्षण में संस्कृति का प्रभाव

पालन-पोषण तथा प्रशिक्षण के तरीके पूर्णतया समूह की संस्कृति से सम्बन्धित होते हैं। जैसे- आगपेश जनजातियों में बच्चे का पालन-पोषण आरम्भ से ही नम्रता और सहानुभूति के साथ किया जाता है। जिसके फलस्वरूप इस जनजाति के लोगों में प्रेम, दया, सहानुभूति, आदर और सहयोग के गुण अत्यधिक पाये जाते हैं।

जबकि मुण्ड गुमार जनजाति के बच्चों में आरम्भ से मारने-पीटने, माँ से पृथक रखने आदि के कारण उनमें निर्दयता, क्रूरता, आक्रामकता आदि की प्रधानता पायी जाती है।

उपरोक्त के अतिरिक्त संस्कृति मानव में नैतिकता का स्वरूप कष्ट सहने की क्षमता तथा सम्मान प्रदर्शन करने की कला को भी पूरी तरह प्रभावित करता है।

भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में अन्तर


भौतिक संस्कृतिअभौतिक संस्कृति
भौतिक संस्कृति मूर्त है।अभौतिक संस्कृति अमूर्त है।
मूर्त होने के कारण भौतिक संस्कृति की मापतौल सम्भव है।अमूर्त होने के कारण अभौतिक संस्कृति की मापतौल सम्भव नहीं है।
अभौतिक संस्कृति का व्यक्ति से वाह्य सम्बन्ध होता है।अभौतिक संस्कृति का व्यक्ति से आन्तरिक सम्बन्ध होता है।
भौतिक संस्कृति में परिवर्तन की गति तीव्र होती है।अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन की गति अत्यन्त मन्द होती है।
भौतिक संस्कृति के तत्वों में वृद्धि तेजी से होती है।अभौतिक संस्कृति के तत्वों में वृद्धि अत्यन्त कम होती है।
भौतिक संस्कृति को व्यक्तियों द्वारा शीघ्रता से ग्रहण कर लिया जाता है।अभौतिक संस्कृति को व्यक्तियों के द्वारा शीघ्रता से ग्रहण कर पाना सम्भव नहीं है।
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