मूल्यांकन प्रणाली में शिक्षा एक उद्देश्यपरक प्रक्रिया मानी गयी है। इसका अर्थ हुआ इसमें शिक्षण तथा परीक्षण की क्रियाएं उद्देश्य-केन्द्रित की जाती है। परीक्षण शिक्षण पर आधारित होता है। इसमें मूल्यांकन को व्यापक रूप में प्रस्तुत किया गया है।
मूल्यांकन छात्रों की निष्पत्तियों को सीमित नहीं करता बल्कि इसमें बालक के सम्पूर्ण व्यवहार तथा शिक्षण-प्रक्रिया के उपकरणों एवं विधियों की इस आधार पर जाँच की जाती है। बी.एस. ब्लूम ने शिक्षा को त्रिपदी प्रक्रिया कहा है जिन्हें मूल्यांकन प्रणाली के सोपानों के नाम से जाना जाता है-
- शैक्षिक उद्देश्यों का निर्माण या निर्धारण,
- सीखने के अनुभव प्रदान करना तथा
- व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करना।
1) शैक्षिक उद्देश्यों का निर्माण
शैक्षिक उद्देश्यों से अभिप्राय - ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों में परिवर्तन लाना है। इसके अन्तर्गत हमें जो बातें ध्यान रखनी होती हैं उनमें आवश्यकताएं एवं क्षमताएं भी विभिन्न होती हैं।
शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण करते समय छात्र के विकास क्रम को ध्यान में रखना आवश्यक है। शैक्षिक स्तर को ध्यान में रखना चाहिए तथा एक ही विषय वस्तु को शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर पढ़ाया जाए। शैक्षिक उद्देश्यों में विषय की प्रकृति पर ध्यान देना भी आवश्यक है। समाज की आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।
2) सीखने के अनुभव
इसके अन्तर्गत वे साधन शामिल हैं जिनकी सहायता से शैक्षिक उद्देश्य प्राप्त हो सकते हैं। हम छात्र द्वारा विद्यालय तथा उसके बाहर से प्राप्त अनुभवों को वही सीखने के अनुभव कहेगें जो शैक्षिक उद्देश्य प्राप्त करने में सहायक हों। शिक्षक का कर्तव्य है की वह शिक्षण के अन्तर्गत ऐसी विधियों, प्रविधियों तथा क्रियाओं का चयन करे जो छात्र को वांछित अनुभव प्रदान कर सके।
3) व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन
छात्रों को शिक्षण के दौरान सीखने के जो विभिन्न अनुभव प्रदान किए जाते हैं उनके द्वारा छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाए जाते हैं। इन व्यवहार परिवर्तनों के मूल्यांकन द्वारा उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाला जाता है। यदि ये परिवर्तन वांछनीय न हो तब इसका अर्थ वही होगा कि ये अधिगम के अनुगम प्रभावपूर्ण नहीं है।