भारत में बाल-अपराध । Juvenile Delinquency in India

भारत में बाल-अपराध (Juvenile Delinquency in India)

भारत में बाल-अपराध के निर्धारण में निम्नलिखित तथ्य महत्त्वपूर्ण हैं-

(1) भारत में बाल-न्याय अधिनियम, 1986, जो कि अक्टूबर, 1987 से लागू किया गया, के अनुसार 16 वर्ष तक की आयु के लड़कों एवं 18 वर्ष तक की आयु की लड़कियों द्वारा अपराध करने पर बाल-अपराधी की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।

(2) केवल आयु ही बाल-अपराध Juvenile Delinquency को निर्धारित नहीं करती वरन् इसमें अपराध की गम्भीरता भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। 7 से 16 वर्ष का लड़का एवं 7 से 18 वर्ष की लड़की द्वारा कोई ऐसा अपराध किया गया हो जिसके लिए राज्य मृत्यु दण्ड अथवा आजीवन कारावास देता है; जैसे-हत्या, देश द्रोह आदि तो वह बाल-अपराधी नहीं माना जायेगा।

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(3) कोई भी बालक जिसकी आयु 7 वर्ष से कम है और जो कानून विरोधी व्यवहार करता है तो वह बाल-अपराधी Juvenile Delinquent नहीं माना जायेगा क्योंकि ऐसे बालक अबोध होते हैं, उन्हें उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं होता। भारत में बालकों द्वारा जितने अपराध किये जाते हैं, उनमें से 2% अपराध ही पुलिस एवं न्यायालय में आ पाते हैं। 

भारत में बाल-अपराध Juvenile Delinquency in India की स्थिति निम्न प्रकार है- 

(1) वर्ष 1995 में भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत कुल संज्ञेय 9,766 अपराधों में से सबसे अधिक सम्पत्ति सम्बन्धी थे-चोरी 29%, सेंधमारी 13.2%, लूटपाट 0.8% और डकैती 0.6% ।

(2) ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में बाल-अपराध नगरीय क्षेत्रों में अधिक होते हैं। भारत के दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले 23 नगरों में 1994 में 1,362 बाल-अपराध दर्ज किये गये।

(3) बाल-अपराध की सर्वाधिक दर सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से निम्नतम समूहों में पायी जाती है।

(4) लड़कों में लड़कियों की तुलना में बाल-अपराध अधिक पाये जाते हैं। हंसा सेठ के मुम्बई राज्य के अध्ययन में 91-2% अपराध लड़कों द्वारा तथा 8.8% लड़कियों द्वारा किये गये थे।

(5) महाराष्ट्र, बिहार, आन्ध्र प्रदेश में बाल-अपराधों का 69% भाग आता है।

(6) बाल-अपराधियों द्वारा सर्वाधिक अपराध आर्थिक होते हैं, जो 44% हैं।

(7) भारत में अधिकांश बाल-अपराध 12 से 16 वर्ष की आयु में किये जाते हैं, जो 66.9% हैं।

(8) बाल-अपराधी व्यक्तिगत रूप से कम अपराध करते हैं। वे गिरोह या परिवार के सदस्यों एवं मित्रों के साथ मिलकर ही अपराध अधिक करते हैं।

(9) भारत में कुल अपराधियों में से 50% अनुसूचित जातियों एवं जन-जातियों के पाये गये हैं क्योंकि इनमें गरीबी अधिक पायी जाती है।

(10) शिक्षितों की तुलना में अशिक्षित द्वारा अपराध अधिक किये जाते हैं। एस० सी० वर्मा के अध्ययन में 62-67% बाल-अपराधी अशिक्षित थे।

बाल-अपराध के उपचार हेतु प्रयास (Efforts for Rectification of Juvenile Delinquency)

यदि बाल-अपराध Juvenile Delinquency का उपचार न किया गया तो आगे चलकर ये गम्भीर अपराध करने लगेंगे जिससे समाज पर बहुत ही दुष्प्रभाव पड़ेगा। बच्चे देश के भावी कर्णधार हैं और उन्हें इस कुमार्ग पर चलने से रोकना बहुत ही आवश्यक है। बाल-अपराध के उपचार हेतु अनेक प्रयास किये गये हैं, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं

(1) बाल-अधिनियम (Children Act)

उत्तर प्रदेश सरकार ने सन् 1951 में बाल-अधिनियम पारित किया था जो कि सन् 1956 में लागू किया गया और 1978 में संशोधित किया गया। वर्तमान में यह अधिनियम 12 जिलों-लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झाँसी, बरेली, फैजाबाद, गोरखपुर, बाराबंकी, मुरादाबाद, मेरठ, आगरा तथा मथुरा पर लागू है तथा देश के अन्य राज्यों ने भी इसे लागू कर दिया है। इस अधिनियम के अन्तर्गत 16 वर्ष से कम आयु के बच्चे आते हैं। बाल-अधिनियम के अन्तर्गत निम्न प्रावधान किये गये हैं-

(i) किशोर जेल

प्रत्येक जिले में बाल-अपराधियों के लिये किशोर जेल की व्यवस्था की गई है। जहाँ अपराधियों को हथकड़ी नहीं पहनायी जाती। यहाँ का वातावरण अच्छा होता है। अगर बालकों को जेल में रखा जाय तो जेल में दूसरे बड़े अपराधियों के प्रभाव के कारण बाल-अपराधी के सुधरने की बजाय गम्भीर अपराधी बनने की सम्भावना अधिक हो जाती है।

(ii) सुधारवादी सेवाएँ

जिन जिलों में यह सुधार गृह हैं वहाँ एक सुधारवादी अधिकारी भी नियुक्त किया गया है, जो इन जेलों की भी देख-रेख करता है।

(iii) अवलोकन गृह या परिवीक्षण गृह

बड़े-बड़े नगरों में इन गृहों में 50 अपराधियों को रखा जा सकता है तथा अन्य स्थानों पर 15 अपराधी रखे जा सकते हैं। हमारे देश में इस समय 55 अवलोकन गृह कार्य कर रहे हैं। 

(iv) एप्रूव्ड स्कूल

इस प्रकार के स्कूल हमारे प्रान्त में केवल तीन हैं, जिनमें से दो वाराणसी और एक गाजीपुर में है जहाँ 100 अपराधी रखे जा सकते हैं। इन स्कूलों में केवल वही बच्चे रखे जाते हैं, जिनके संरक्षक अपने (अपराधी) बच्चों को अपने पास रखने में विफल हो जाते हैं। यहाँ बच्चों को तरह-तरह के हाथ के काम सिखाये जाते हैं।

(2) बोर्स्टल स्कूल (Borstal School)

इस संस्था का आविष्कार इंग्लैण्ड में सन् 1902 में हुआ। सर रगेल्स ब्राइस ने बोर्स्टल नामक स्थान पर एक गैर-सरकारी जेलखाना खोला जिसका उद्देश्य बाल-अपराधियों को वहाँ रखकर उनका सुधार करना था। यह एक सुधारात्मक संस्था है, जिसमें पन्द्रह से इक्कीस वर्ष के बाल-अपराधियों को रखा जाता है।

इन स्कूलों में इस बात पर अधिक बल दिया जाता है कि बच्चा यहाँ से निकलने पर समाज में अच्छा व्यवहार कर सके। इस समय इस पद्धति का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि अपराधी बालक के व्यक्तित्व को इस प्रकार प्रोत्साहन दिया जाये ताकि वह अपराध की मनोवृत्ति को त्याग दे। इस प्रणाली में अपराध का ध्यान न रखकर अपराधी पर ध्यान रखा जाता है।

इन संस्थाओं में बच्चों को छोटे-छोटे समूहों में रखा जाता है। इन समूहों का एक-एक पृथक् मॉनीटर होता है, इसका चुनाव होता है तथा यह हाउस मास्टर कहलाता है। इन समस्त बच्चों में जो बच्चा बहुत अच्छे आचरण का होता है, उसे सरकार द्वारा बैज धनराशि भी दी जाती है जिससे उन्हें अच्छे आचरण के लिये प्रेरित किया जा सके। बोर्स्टल स्कूल एक्ट के अनुसार भारत में इस प्रकार के स्कूल चेन्नई, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब,बंगाल, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मुम्बई, मैसूर तथा ट्रावनकोर में स्थित हैं।

(3) सुधार-गृह अथवा रिफोर्मेटरी स्कूल (Reformatory School)

सन् 1897 में रिफोर्मेटरी स्कूल एक्ट सभी बड़े-बड़े राज्यों तथा कुछ केन्द्र शासित क्षेत्रों में लागू किया गया था। इसमें 15 वर्ष की आयु तक के बच्चे रखे जाते हैं तथा उन बच्चों को इन स्कूलों में निम्नलिखित सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं-

  1. रात के समय अलग-अलग रखने की व्यवस्था है।
  2. सफाई, प्रकाश एवं पानी का उचित प्रबन्ध किया जाता है। खाने तथा कपड़ों की भी उचित व्यवस्था होती है।
  3. बीमार होने पर उनके लिये चिकित्सा की भी व्यवस्था होती है।
  4. उनको उचित रूप से औद्योगिक प्रशिक्षण दिया जाता है।

हमारे देश में पहले इस प्रकार की केवल 5 संस्थाएँ थीं, लेकिन अब 7 संस्थाएँ हो गई हैं। इस प्रकार इन स्कूलों में बाल-अपराधियों को विभिन्न प्रकार के व्यवसायों का उचित प्रशिक्षण दिया जाता है। भारत में इस प्रकार के अनेक सुधार गृहों की स्थापना की जा चुकी है।

पूर्वी हिसार में पंजाब, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश तीनों राज्यों के लिए एक सुधार गृह है। इसी प्रकार हजारीबाग का सुधार गृह पश्चिमी बंगाल, बिहार, असम और उड़ीसा राज्यों के लिए है। सामान्यतः इन सुधार गृहों में माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा दी जाती है। उत्तर प्रदेश बाल अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत एक-एक सुधार अधिकारी की 18 जिलों में नियुक्ति की गई है जो बाल-अपराधियों को सुधारने का प्रयास करते हैं और उनकी गोपनीय रिपोर्ट तैयार करते हैं।

(4) बाल-बन्दीगृह (Juvenile Jail)

बाल-बन्दीगृह भी सुधार संस्था के रूप में विकसित किये गये हैं तथा ये बोर्स्टल स्कूल के सिद्धान्तों पर आधारित हैं। ये संस्थाएँ बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर प्रदेश में स्थापित की गई हैं, जिनको सदन के नाम से भी पुकारा जाता है। इस प्रकार की 92 जेलें इस समय हमारे देश में हैं।

इन संस्थाओं में सामान्यतया 21 वर्ष तक के बाल-अपराधी रखे जाते हैं, यहाँ शिक्षा की व्यवस्था होती है तथा पढ़ने में रुचि रखने वाले बच्चों को बाहर पढ़ने की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। बरेली (उ० प्र०) के बन्दीगृह में तो बच्चों द्वारा सरकारी व्यवस्था पर एक कैन्टीन भी चलाई जाती है, जिसका प्रबन्ध बच्चे ही करते हैं। बच्चों की अनेक समितियाँ भी बनाई जाती हैं जिनका प्रबन्ध वे स्वयं करते हैं तथा चुनाव आदि भी स्वयं ही करते हैं।

उत्तर प्रदेश के किशोर सदन में केवल उन्हीं बच्चों को रखा जाता है जिनकी आयु 19 वर्ष के लगभग होती है तथा इन बाल-अपराधियों को एक साल से कम की सजा नहीं दी जाती है। तीन मास तक कारावास का अधिकारी उस बच्चे की निगरानी करता है और यदि बच्चा अपेक्षित व्यवहार नहीं करता तो उसे केन्द्रीय कारावास में भेज दिया जाता है।

(5) बाल-न्यायालय (Juvenile Courts)

भारत में केन्द्रीय बाल-अधिनियम के अन्तर्गत बाल-अपराधियों के लिए अलग से बाल-न्यायालयों तथा बल-कल्याण बोर्डों की स्थापना की गई है। बाल-न्यायालयों द्वारा बच्चों को संरक्षण एवं पुनर्वास की सुविधा उपलब्ध करायी जाती है। यहाँ की व्यवस्था इस प्रकार की होती है कि बच्चे को यह अनुभव न हो कि उसके साथ एक अपराधी की तरह व्यवहार किया जा रहा है।

बाल-न्यायालय में सामान्यत: दो अवैतनिक न्यायाधीश तथा एक वैतनिक न्यायाधीश होता है। इसके अतिरिक्त सामान्य कपड़ों में पुलिस तथा न्यायालय का एक क्लर्क रहता है। इसमें मुकदमे की तरह बाल-अपराधी के साथ कोई औपचारिक बहस नहीं की जाती वरन् बालक की बात को सहानुभूतिपूर्वक सुना जाता है और उसकी मनोवृत्ति को जानने का प्रयास किया जाता है।

समस्त कार्यवाही इस प्रकार के वातावरण में सम्पन्न होती है जिससे बच्चे के मन में किसी प्रकार का कोई भय उत्पन्न न हो। उसे दोषी पाये जाने पर या तो बॉण्ड भरवाकर माता-पिता के सुपुर्द कर दिया जाता है अथवा उसे किसी सुधार गृह में भेज दिया जाता है। इस प्रकार के बाल-न्यायालय दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश आदि में स्थापित किये गये हैं।

(6)प्रमाणित विद्यालय(Certified School)

बाल-अधिनियम के अनुसार मुम्बई, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, केरल, मैसूर, चेन्नई, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली एवं पश्चिमी बंगाल में प्रमाणित विद्यालयों की स्थापना की गई है। इन विद्यालयों में साधारण शिक्षा के साथ-साथ औद्योगिक प्रशिक्षण; जैसे-बढ़ईगीरी, दरी बुनना, कताई-बुनाई, कपड़े धोना, जिल्दसाजी, मधुमक्खी पालन, कढ़ाई, संगीत, राजगीरी एवं कृषि सम्बन्धी प्रशिक्षण की व्यवस्था है। प्रत्येक 12 बच्चों पर एक मोनीटर होता है। इन बच्चों में जो अच्छे आचरण से रहता है, उसको जेब खर्च तथा 14 दिन का अवकाश भी दिया जाता है।

इन विद्यालयों में 10 से 16 वर्ष तक के बाल-अपराधियों को एक निश्चित अवधि के लिए रखा जाता है, जो सामान्यत: 2-3 वर्ष होती है। सद्व्यवहार करने पर बालक को दण्ड की अवधि से पूर्व भी मुक्त किया जा सकता है। इस प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्था राज्य सरकार के हाथ में होती है किन्तु कुछ विद्यालयों को सार्वजनिक समितियाँ भी चलाती हैं।

(7) परिवीक्षा हॉस्टल (Probation Hostel)

परिवीक्षा हॉस्टल में उन बाल-अपराधियों को रखा जाता है, जिनको परिवीक्षा पर छोड़ा जाता है और जिनका कोई संरक्षक नहीं होता। यहाँ के नियमों का प्रत्येक बालक को पालन करना पड़ता है। इनमें एक वार्डन की नियुक्ति की जाती है जो बाल-अपराधियों की गति विधियों पर निगरानी रखता है।

(8) पोषक गृह (Foster Home)

इसमें दस वर्ष से कम आयु के उन बच्चों को रखा जाता है जिनका कोई संरक्षक नहीं होता। संरक्षक के अभाव में बच्चों पर नियन्त्रण नहीं रहता और उनके सामने भरण-पोषण की समस्या होती है। अत: उन्हें अपराध की ओर प्रवृत्त होने से रोकने हेतु इन पोषक गृहों की स्थापना की गयी है। प्रायः इनका संचालन स्त्रयंसेवी संगठनों द्वारा किया जाता है। सरकार द्वारा भी इन पोषक गृहों को आंशिक रूप से आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है। मुम्बई तथा चेन्नई में अनेक पोषक गृहों की स्थापना की गई है।

(9) रिमाण्ड होम (Remand Home)

रिमाण्ड का अर्थ है वापस भेजना अथवा बन्धन में रखना। बाल-अपराधियों को जब पुलिस पकड़ लेती है तो उन्हें सर्वप्रथम रिमाण्ड होम में रखा जाता है। रिमाण्ड होम का मुख्य उद्देश्य बच्चों को युवा अपराधियों से अलग रखना, उनकी शारीरिक-मानसिक दशाओं का निरीक्षण करना, व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करना तथा मनोरंजन प्रदान करना है और मुक्ति के बाद उन्हें दिशा-निद्रेश देना है।

(10) बाल निर्देशन केन्द्र (Juvenile Guidance Bureau)

इन केन्द्रों के अन्दर मनोवैज्ञानिक ढंग से बच्चों का आचरण ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है। उत्तर प्रदेश बाल-अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में आगरा तथा वाराणसी में बाल निर्देशन केन्द्रों की स्थापना की गयी है।

(11) किशोर न्याय (देख-रेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000

किशोर न्याय (देख-रेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में 1 अप्रैल, 2001 से अमल में लाया गया। कानून के तहत किशोर न्याय बोर्डों का गठन किया गया है। प्रत्येक जिले में गठित इन बोर्डों में एक दण्डाधिकारी/न्यायिक मजिस्ट्रेट, दो सामाजिक कार्यकर्त्ता जिनमें एक महिला होगी। किशोर न्याय के कार्यक्रमों का उद्देश्य निम्न प्रकार है-

  1. किशोर न्याय के तहत किशोर न्याय सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए संरचना तैयार करने के लिए राज्य सरकारों को आर्थिक मदद देना।
  2. किशोर न्याय सेवाओं में न्यूनतम गुणवत्ता सुनिश्चित करना।
  3. समाज से सामंजस्य खो चुके किशोरों के पुनर्वास और उन्हें समाज से असमायोजन से रोकने के लिए पुख्ता सेवाएँ उपलब्ध कराना।
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